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प्राइवेट अस्पताल की बढ़ती दादागिरी का परिणाम है कि आज डेंगू के इलाज के लिए मरीज जनता से 16 से 18 लाख तक का बिल लिया जा रहा है जो मानवीय स्तर से कहीं से भी सही नही लगता लेकिन अस्पतालों के द्वारा पैसे की लूट की अंधी दौड़ में कोई भी इंसानियत नहीं सीखता और उसका गला घोंट देते है। परिवार के लिए सबसे दुखद बात तब होती है जब इतना पैसा देने के बाद भी उसका बच्चा नहीं बच पाता, आखिर कोई भी अभिभावक इतना पैसा क्यों लगाता है उसको एक आस होती है कि उसका प्यारा बच्चा बच जाएगा, लेकिन प्राइवेट अस्पताल के लोग पीड़ित परिवार को सड़क पर खड़ा कर देते है और वह कहीं का भी नहीं रह पाता।सरकारी अस्पतालों की प्रबंधन व्यवस्था में लापरवाही के कारण लोग प्राइवेट अस्पतालों के तरफ रुख करते है जहाँ उनको इस बात का विश्वास होता है कि कहीं न कहीं हम यहां ज्यादा सुरक्षित रहेंगे लेकिन आज के समय में ऐसा सोचना ही गलत होगा क्योंकि प्राइवेट अस्पताल आज अपने मानक पर खड़े नहीं उतर रहे। जहां तक सरकारी अस्पतालों की कार्यप्रणाली की बात करे तो यहां लोग काम के प्रति थोड़ी लापरवाही जरूर बरतते है, उनको काम का ज्यादा तनाव नहीं होता इसके उलट प्राइवेट अस्पताल के लोगों का काम बढ़िया तो होता है लेकिन अगर पैसे की बात करे तो मरीज के परिजनों की खुद हालत खराब हो जाती है, प्राइवेट अस्पताल मरीजो को पैसा उगलने वाला एटीएम समझते है इनकी मानसिकता मरीजों के प्रति बिल्कुल ही सही नहीं होती। इन अस्पतालों का बहुत बड़ा रैकेट होता है जो अपने तो मरीजो का खून पीते ही दूसरे को भी पिलाते है जिसमें पैथोलॉजी, मेडिकल हाल वाले प्रमुखतः जुड़े रहते है जिनको कमीशन के आधार पर रखा जाता है। डॉक्टर जितने ज्यादा जांच पैथोलॉजी को देगा उतने ही मात्रा में उनको कमीशन दिया जाता है। उसी प्रकार से अस्पतालों के बाहर मेडिकल हाल की जितनी भी दुकानें होती है उनसे भी अस्पताल का कनेक्शन होता है, मरीज दवा लेकर अस्पताल के अंदर गया और फिर वही दवा मेडिकल हाल पर वापस आ जाती है। दवा के दामों में भी काफी अंतर देखा जा सकता है, मरीजों से काफी भारी पैमाने पर रुपया वसूला जाता है जिसको हम सफेद लूट की श्रेणी में रख सकते है।। *****************************************नीरज कुमार पाठक नोएडा
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