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कोई भी व्यक्ति अगर कोई कदम उठाता है, तो जरूर उसका कुछ न कुछ लक्ष्य होता है, जिसको पूरा करने की चाहत में ही वह अपने एजेंडे पर सटीक वार करता है। जिस प्रकार बसपा सुप्रीमो मायावती ने दलित एजेंडे को ध्यान में रखते हुए राज्यसभा से इस्तीफ़ा देकर यह सिद्ध करने की कोशिश की कि मैं ही दलितों के बारे में सोचता हूं और उनका पक्का मसीहा हूं। मायावती की गणित यह है कि इस्तीफा दे देने से मैंने दलितों के बीच में जो जनाधार खो दिया है, उसको कुछ हद तक प्राप्त कर सकूं। लेकिन आज के समय में दलित वर्ग के लोग भी पुराने समय के नहीं रह गए हैं। उनकी भी पीढ़ी पढ़-लिखकर समझदार हो गयी है। अब उनको भी अच्छे-बुरे की समझ है। वे भी जानते हैं कि हमारा कौन शुभचिंतक है और कौन नहीं।
पहले के समय में दलित बिरादरी के लोग आसानी से किसी के बहकावे में आ जाते थे और वोट देकर फंस जाते थे। फिर पांच साल पछतावा करने में ही बीत जाते थे, लेकिन आज ऐसा कुछ भी नहीं है और दलित ही नहीं सभी लोग जागरूक हो गए हैं। मगर मायावती की सोच आज भी पुरानी है और वे सोच रही हैं कि मैं इस्तीफा देकर नहले पर दहला मार रही हूं, तो ऐसा नहीं है। ये सभी को पता है कि मायावती की राज्यसभा की सदस्यता अप्रैल 18 तक ही है। इसके बाद वे अपने बल पर आ भी नहीं सकतीं, लिहाजा अपने अंधकारमय भविष्य को देखते हुए उन्होंने इस्तीफा देना उचित समझा। अब इस्तीफा देने से उनकी साख बढ़ने वाली नहीं है।
बसपा सुप्रीमो ने इसी कारण एक मास्टर स्ट्रोक खेला कि मुझको बोलने नहीं दिया जा रहा, मेरी आवाज दबाई जा रही है। इन्होंने ऐसा इसलिए बोला कि दलितों के बीच में साख बढ़े, इसलिए आसानी से कहा जा सकता है कि यह इस्तीफा राजनीति से प्रेरित है न कि दलित प्रेम के कारण। अगर इनका दलित प्रेम इतना ही ज्यादा था, तो सहारनपुर दंगे के समय इस्तीफ़ा क्यों नहीं दिया। उस समय इस्तीफा देतीं तब पता चलता कि वाकई में वे दलित प्रेमी हैं। इनका दलित प्रेम सिर्फ़ और सिर्फ़ दिखावा है, जो राजनीति में बने रहने के लिए होता है। मायावती की सोच यह थी कि त्यागपत्र देने के बाद दलित वर्ग का झुकाव मेरी तरफ बढ़ेगा, इसलिए ही इन्होंने राजनीति से प्रेरित होकर या हम यूं कहें कि पूरे तौर पर राजनीतिक होकर इस्तीफ़ा दिया।
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