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देश का कोई भी मनुष्य हो, पार्टी हो या कोई भी राजनेता ,अगर उसके विचार दूसरे से नहीं मेल खाते या दोनों के विचारों में समानता नही है , तो यह एक वैचारिक प्रदूषण का बहुत बड़ा कारण हो सकता है। यह प्रदूषण इतना खतरनाक तो नही है कि जनता और मानव समाज के लिए जानलेवा साबित हो लेकिन इतना जरूर है कि अगर राजनेताओ के अंदर यह प्रदूषण फ़ैलता रहा तो फिर देश की राजनीति में जरूर मुश्किल आ सकता है और जिसके वजह से राजनेताओं के अहं के कारण देश को भी नुकसान उठाना पड़ सकता है। आज के समय में देश के अंदर पार्टियों की संख्या में कोई कमी नही है,और जब पार्टी जितनी ज्यादा होगी तो नेता भी ज्यादा ही होंगे। अब सीधा मतलब ये है की जितने भी ज्यादा संख्या में राजनेता होंगे,उतने ही ज्यादा वैचारिक प्रदूषण का दायरा भी बढेगा , और जब वैचारिक प्रदूषण करने वाले राजनेता ज्यादा होंगे तो देश किस तरफ जायेगा,यह तो आप भी अंदाजा लगा सकते है।लेकिन आज के समय में राजनेता अब राष्ट्रहित का त्याग करके अब अपनी पार्टी हित पर ज्यादा विश्वास करने लगे है,और उनको पार्टी ही प्यारी लगती है।आज हर राजनेता अपने-अपने वोट की राजनीति में लगा हुआ है,सबको एक ही डर रहता है कि कहीं हमारा वोट की गणित खिसक न जाये और हम सत्ता से बाहर हो जाएं, इसी डर के कारण कोई भी पार्टी खुलकर नही बोलती कि गलती से मेरा जनादेश खिसक न जाये,इसी डर के कारण ही राजनेता लोग अपने स्तर से उल्लू सीधा करने में लगे रहते है। राजनेताओं के लिए आज के समय में सबसे बड़ा देश नही है,बल्कि उनके लिए सबसे बड़ी अपनी पार्टी है। आज राजनेता लोग इतना भी सोचने की ज़हमत नही उठाते है कि किस बात से देश का फ़ायदा होगा और किस बात से देश का नुक़सान होगा,उसके बाद भी ये राजनेता वैचारिक प्रदूषण के चपेट में आ ही जाते है। अब ये इनकी कमजोरी ही कही जाएंगी कि सभी पार्टी के लोग एकमत तब नही होते जब राष्ट्र के हित की बात होती है। अगर संसद देश की समस्या पर चर्चा के लिए है तो उस संसद का सांसद सदुपयोग नही करते बल्कि अपने हो-हल्ला का ठिकाना बना देते है,नोट बंदी के बाद से लेकर संसद के पूरे सत्र तक ,सर्जिकल स्ट्राइक से लेकर वन रैंक वन पेंशन तक के मामलों पर सीधे -सीधे देखा जाय तो वैचारिक प्रदूषण की चपेट में ही राजनेता दिख रहे है।। *****************************************नीरज कुमार पाठक नोएडा
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