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आर्थिक पीड़ा में आम आदमी

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आज नोटबंदी को एक माह से ऊपर हो रहा है लेकिन जनता के सुबिधाओं के हिसाब से देखे, तो जनता आज भी सरकार के इस कुव्यवस्था की चक्की में पिसती जा रही है, आज दो हजार रुपये के लिए लोग सुबह चार से पांच बजे के बीच ही इस कड़ाके की ठंड में सिकुड़ते हुए भी लाइन में लगे हुए है,और लाइन में लगे-लगे किसी न किसी से झड़प भी हो जा रही है,अगर बात ज्यादा बढ़ गयी तो पुलिस की गाली और डंडा दोनों खाना पड़ रहा है,भले ही वह ब्यक्ति घर से खाना न खाया हो लेकिन डंडा खाना उसकी मजबूरी बन गयी है ,क्योंकि उसको तो किसी भी हालत में रुपया चाहिये। सबसे ज्यादा तकलीफ तब होती है जब कोई भी ब्यक्ति सुबह चार बजे से लाइन में लग कर 10-11 बजे के बीच बैंक के अंदर पहुंचता है ,इस आशा के साथ कि कम से कम 24 हजार रुपये तो निकल ही आएंगे जिससे कुछ तो काम चल ही जायेगा, लेकिन उसका सब अरमान तब टूट जाता है जब बैंक कर्मचारी उससे बोलता है कि दूसरा चेक बना कर ले आओ,क्योकि हम 6 हजार से ऊपर नही दे रहे है , इतना सुनने के बाद उस ब्यक्ति के पैर के नीचे से जमीन खिसक जाती है क्योंकि जिस मन के साथ वह लाइन में लगा था वह अरमान पूरा नहीं हुआ ,अर्थात उसके मन में तो यह था कि 24 हजार मिलेंगे,लेकिन मिला 6 हजार।अब वह सोचने लगता है कि मैं 6 हजार से क्या करूँगा, जबकि मुझको 24 हजार चाहिये। 6 हजार रुपये मिलने के बाद वह ब्यक्ति दुखी मन से पैसे तो रख लेता है,लेकिन अधमने मन से। आज जनता को दो तरफा दर्द सहने के लिए बाध्य होना पड़ रहा है, एक तो पैसा कम मिलने का दुख तो दूसरे जो भी पैसा मिल रहा है वह दो- दो हजार के नोट । अगर जो ब्यक्ति बिना खाये सुबह से दोपहर तक लाइन मे लगा है वह अगर ये सोचे कि कहीं पर समोसा,चाय कर लें तो वह 6 हजार रखने के बाद भी कुछ नहीं ख़ा सकता है और बिन खाये ही वह दुखी मन से अपने कुटिया के तरफ प्रस्थान कर लेगा। लेकिन जनता के इस आर्थिक पीड़ा को कोई समझ नही पा रहा है। अब सरकार हो या बैंक इन दोनों की गणित समझ से परे है क्योंकि एक आम आदमी 2 हजार रुपये की नोट पाने के लिए दिनभर लाइन का सहारा ले रहा है जब कि वही दूसरी तरफ करोड़ो की खेप रोज पकड़ी जा रही है ये कैसे हो रहा है ,कैसे इतने भारी पैमाने पर नोटों का जखीरा मिल रहा है,अब इसका उत्तर तो केवल केंद्र सरकार या ऱिजर्व बैंक आफ इंडिया ही बता सकती है।।
लेकिन कहीं न कहीं कुछ लोचा तो जरूर है कि इतना बड़ा अंतर जनता,सरकार और बैंक में कैसे हो सकता है कि एक आदमी के पास दो हजार के नए नोटों की करोड़ो रुपये की खेप पकड़ी जा रही है तो दूसरी तरफ एक सामान्य आदमी के लिए दो हजार की एक नोट ही भारी पड़ रही है। ये सरकार की अव्यवस्था की पोल खोल रहा है। इस कमी के लिए बैंक भी कम जिम्मेदार नही है और बैंक कुछ कदम तो मज़बूरी में तो कुछ जानबूझकर उठाया जा रहा है। बैंक के कर्मचारी अगर जानबूझकर कोई गलत कदम उठा रहे है तो इसमें उनके जानने वाले या फिर रिश्तेदार लोग हो सकते है लेकिन कुछ जगहों पर तो बैंक मैनेज़र को माफ़िया से धमकी के वजह से ग़लत कदम उठाना पड़ रहा है,क्योंकि वे बैंक से बन्दूक के बल पर अपना पैसा बदलवा रहे है, अब बैंक मैनेजर बेचारे भी क्या करे या तो नोट को सही सलामत पहुंचाये,या फिर अपने भगवान के यहां पहुँचने के लिए तैयार रहे। क्योंकि माफिया तो माफिया तो माफिया होता है उसको किसी को भगवान के पास भेजने में देरी नहीं होती। अब सरकार का यह कर्तब्य बनता है कि वह इस भारी गैप को समझे और उसको जल्द से जल्द दूर करने की कोशिश करें और जो भी बैंक इस नोट बंदी की आड़ में ये काला धंधे का खेल हो रहा है उसको बंद किया जाय। बैंक को भी चाहिये की दो आंखों से देखने का खेल बंद करना चाहिये,और पहले उन लोगों को पैसा देना चाहिए जो अपने को शरीर को सुबह की ठंड में गला रहे है। इस बात की आशा करता हूं कि स्थिति जल्द से जल्द क़ाबू हो और आम आदमी की आर्थिक पीड़ा का दौर खत्म हो।। **********************************************************************************नीरज कुमार पाठक नोएडा *****************************************

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